रोशनी बुझे दिये की
(Kahani written by Bhupendra Kumar Dave)
‘रोशनी बुझे दिये की’ यही शीर्षक था मेरे
एक संस्मरण का जिसमें मैंने लिखा था:
‘‘बात उन दिनों की है, जब मैं कालेज में पढ़ता
था। गुस्सा नाक पर बैठा रहता था और हर छुटपुट घटना पर उग्र रूप धारण कर लेता था।
‘‘एक दिन सायकिल तेजी से दौड़ाता हुआ मैं अपनी
धुन में जा रहा था कि बाँईं तरफ से एक व्यक्ति आकर मेरी सायकिल से भिड़ गया। मैं ऐसा
धराशायी हुआ कि धुटनों और हथेली मे खरोंचों ने आग-सी लगा दी। क्रोध स्वाभाविक रूप से
चरम सीमा पर आ गया। मुँह से गालियाँ तो नहीं निकली (क्योंकि उन दिनों गुस्से में गाली
देना भी सभ्यता और शान के खिलाफ माना जाता था) पर मैं चिल्ला पड़ा -- ‘क्यों बे! कैसे चलता
है? दिखाई नहीं देता क्या?’
‘‘मैं धूल झाड़ता हुआ खड़ा हुआ। वह व्यक्ति चुपचाप
खड़ा रहा -- एकदम स्थिर। मैंने देखा तो अवाक् रह गया। शर्म से गर्दन झुक गयी। वह व्यक्ति
वास्तव में अंधा था।
‘‘मुझे अब जब कभी क्रोध आता है तो उक्त घटना
याद आ जाती है। बुझे दिये की वह रोशनी क्रोध को खुद-ब-खुद शांत कर देती है।’’
परन्तु एक बार यह संस्मरण समय पर याद नहीं
आया। मैं दिव्यांग बच्चों के विद्यालय के संचालक की हैसीयत से कुछ बच्चों को दिल्ली
में आयोजित खेल प्रतियोगिता के लिये ले जा रहा था। ट्रेन छूटनेवाली थी और मैं एक छोटे
बच्चे की बैसाखी अपने हाथ में थामे उसे रेलडिब्बे में चढा रहा था कि कोई महिला मुझसे
टकरायी। बच्चा मेरे हाथ से फिसलते-फिसलते बचा। मैं भी संतुलन खो बैठा था और प्लेटफार्म
पर गिर पड़ता लेकिन मुझे स्टेशन पहुँचाने आये मेरी संस्था के कर्मचारी ने मुझे थाम लिया। मैं चीख पड़ा, ‘अंधी है क्या?
दिखता नहीं क्या?’
बच्चे को ऊपर चढ़ाकर मैंने पलटकर देखा कि वह
महिला सच में अंधी थी। वह उसी डिब्बे में चढ़ने का प्रयास कर रही थी। शर्म से मेरी गर्दन
झुक गयी। मेरे ओठों पर अफसोस जताने शब्द आये पर ठिठक कर रह गये।
ट्रेन स्टेशन छोड़ रही थी और मैं अपने डिब्बे
की ओर लपका। क्रोध आने पर साँसें उतनी नहीं फूलती, जितनी क्रोध पर काबू
पाने के लिये अंतः में उठी बेचैनी से फूलती हैं। मैं धम्म से सीट पर बैठ गया।
‘इतना क्रोध भी अच्छा नहीं होता,’ मेरे बाजू में बैठे
हुए व्यक्ति ने कहा। वह शायद उसी जगह मौजूद था जहाँ मैं चीखा था --- ‘अंधी है क्या?
दिखता नहीं क्या?’
मैं कुछ कहता, उसके पहले वह कहने
लगा, ‘आप उस अपाहिज बच्चे की मदद कर रहे थे। अच्छा काम करते समय तो मन ईश्वर द्वारा संचालित
होता है। तब क्रोध तो उठना ही नहीं चाहिये। खैर, अब वह सब भूल जाईये।’
मैंने कहा, ‘मुझे अपने से ज्यादा
उस बच्चे की फिक्र थी। दिव्यांग बच्चों के विद्यालय के संचालक की हैसीयत से उनकी सारी
जिम्मेदारी मुझ पर ही तो है।
यह सुन उस व्यक्ति ने गहरी साँस लेते हुए
कहा, ‘जिम्मेदारियाँ तो जिन्दगी भर एक के बाद एक आती ही जाती हैं। उनका थम जाना जिन्दगी
को नीरस बना देता है। परन्तु कुछ जिम्मेदारियाँ बड़ी विचित्र-सी होती हैं --- न तो वह
निभायी जाती है और जब तक वह पूरी नहीं होती तो चुभती ही जाती हैं --- जिन्दगी का हर
क्षण को भारी बनाती हुई।’
यह बोलते-बोलते वह भावुक हो उठा। फिर अपने
को संयत कर आगे कहने लगा, ‘एक ऐसी ही जिम्मेदारी मुझ त्रस्त करे जा रही है। सोचता हूँ कि
आप के पास शायद इसका निदान मिल जावे।’ फिर अचानक उसने प्रश्न किया, ‘क्या आप मदद कर सकेंगे?’
‘अवश्य, यदि संभव हो सके तो’,
मैंने कहा।
‘आप दिव्यांग संस्था से जुड़े हैं, इसलिये सोचता हूँ कि
आप अवश्य कुछ कर सकेंगे। बात यह है कि मेरी पत्नी ने बीस बरस पहले एक बच्ची को जन्म
दिया था। परन्तु बच्ची के पाँचवे जन्म दिन के बाद अचानक मेरी पत्नी को लगा कि वह आगे
अपनी इस बच्ची को सम्हाल नहीं पावेगी और उसने उसे अनाथालय में देने का मन बना लिया।
उस समय मैं भी विदेश गया हुआ था। अतः मैंने सहमती दी और पत्नी ने गोद देने के सहमती-पत्र
पर हस्ताक्षर भी कर दिये थे।’
अपनी आँखों की नमी को छिपाने के असफल प्रयास
करने के बाद उसने अपनी बात पूरी करते हुए कहा, ‘अभी कुछ समय से पत्नी
अपनी इस इकलौती संतान के खो जाने से विचलित हो उठी है। मैं भी हर तरह का प्रयास कर
उस बच्ची की खोज नहीं कर पाया हूँ।’
इतना बता कर वे चुप हो गये, पर उनकी आँखों में
आकार लेते अश्रुकण कहने लगे, ‘अब बच्ची को खोज पाने की जिम्मेदारी एक टीस में बदल गई है
--- जो भीतर ही भीतर चुभती जाती है और आत्मा को खोखला करती जाती है।’
पर उनकी बात यह स्पष्ट न कर पायी कि किस वजह
से उनकी पत्नी बच्ची को अपने से दूर करना चाहती थी। एक और बात मुझे असमंजस में डाल
गई कि कैसे वे दिव्यांग संस्था से जुड़े आदमी से मदद की चाह रख रहे थे?
‘क्या मंजू अपंग थी,’ आखिर मैंने पूछ ही
लिया।
इस प्रश्न पर वे एक हताश व्यक्ति
की तरह शून्य में निहारते रहे।
मैं भी ऐसे हताश व्यक्ति से कैसे कहता कि
इस खोज का अंजाम ‘शून्य’ ही होना है क्योंकि कोई भी जागरुक संस्था गोद लेनेवाले का नाम
उजाकर नहीं करती और तो और इस तरह की प्रक्रिया से संबंधित सारे सबूत भी सील बंद कर
दिये जाते हैं। फिर भी उम्मीद की लौ के काल्पनिक प्रतिबिम्ब को दर्पण के पीछे से प्रकट
होते रखने के लिये मैंने सारी जानकारी उस व्यक्ति से प्राप्त कर ली। वर्धा के अनाथालय
को सोंपी गई मिस्टर शिंदे की पुत्री का नाम मंजू शिंदे है। गोद देने के सहमती-पत्र पर हस्ताक्षर 23 सितम्बर 1996 के हैं। मि. शिंदे
की जानकारी के अनुसार मंजू को लगभग बारह वर्ष पहले गोद लिया जा चुका था।
पर उनके द्वारा दी गई जानकारी की कमजोर कड़ी
थी मंजू की फोटो --- जो उसकी पाँचवी वर्षगाँठ का थी। बच्ची का नाम भी कुछ सुराख देनेवाला
नहीं था क्योंकि लोग प्रायः गोद लिये बच्चे को नया नाम दे देते हैं।
रेल रफ्तार पकड़ चुकी थी। मैं बाथरूम से लौटकर
आया तो देखा श्री शिंदे अपनी जगह पर नहीं थे। याद आया कि उन्होंने मुझे एक कार्ड दिया
था जिसमें उनका कान्टेक्ट नंबर था और कहा था, ‘मैं आपके फोन के इंतजार
में रहूँगा।’ उनका यूँ अचानक अन्यत्र चले जाना मुझे अजीब-सा लगा। शायद वे
बातचीत को और आगे नहीं बढ़ाना चाहते थे। मुझे लगा जैसे वे मंजू व अपनी पत्नी से संबंधित
कुछ बातें रहस्यमयी ही बनी रहने देना चाहते थे।
खैर, दिल्ली पहुँचते ही
मैं व्यस्त हो गया और श्री शिंदे की बातें पूर्णतः विस्मृत हो गईं। पर प्रतियोगिता
के अंतिम दिन न जाने क्या सोच कर मैंने माइक पर सूचना प्रसारित करवायी कि मंजू शिंदे
नामक प्रतियोगी जहाँ कहीं भी हो स्टेज पर मुझसे मिले।
कहते हैं कि अंतः से जाग्रत आवाज प्रबल प्रार्थना
की सी होती है। मैंने देखा कि कोई एक बच्ची को मंच की ओर ला रहा था। दूर से लगा कि
वह मंजू शिंदे होगी। किन्तु जब वह पास पहुँची तो उसे मैं पहचान गया। वह विद्या गुप्ता
थी जो मेरे साथ इस प्रतियोगिता में आयी थी। उसका चेहरा कुम्हलाया हुआ था।
‘क्यों बेटी क्या हुआ,’ मैंने पूछा।
वह आश्चर्यचकित-सी मुझे देखती रही और बोली,
‘अभी अभी किसी ने मंजू
शिंदे को मंच पर बुलाया था?’
‘हाँ, मैंने ही एनाऊंस करवाया
था,’ मैंने जवाब दिया।
‘आपने! आपने मेरे पुराने नाम को कैसे जाना?’
उसके इस प्रश्न का उत्तर मैं तुरंत
नहीं दे पाया। देता भी कैसे? मेरी कल्पना में तो मंजू कोई अपरिचित लड़की थी।
‘बेटी,’ मैंने कहा,
‘तुम मंजू शिंदे हो
तो अपने माता-पिता को जानती होगी और उनसे मिलने की तीव्र इच्छा भी रखती होगी।’
मेरे इस प्रश्न पर उसकी प्रतिक्रिया
तिलमिलाहट से भरी हुई थी। वह कहने लगी, ‘जब मुझे माँ की जरुरत थी तब उसने मुझे त्याग
दिया। पिता भी खामोश रहे। अब जो मम्मा-पापा मुझे मिले हैं, वे मुझे बहुत प्यार
करते हैं। मेरे लिये उन्होंने क्या कुछ नहीं किया। एक रोशनी खोती बच्ची अपने माता-पिता
से प्यार ही तो चाहती थी। बस और कुछ नहीं। पर ऐसे
समय बच्ची को असहाय छोड़ देना कूरता की पराकाष्ठा ही तो मानी जावेगी।’
इतना कह वह मुझसे लिपट
गई और रोते हुई बोली, ‘आप मुझे कभी भी उस अतीत की अंधेरी गुफा की तरफ मत ढकेलना।’
पर मैं श्री शिंदे के अनुरोध को एकदम ठुकरा
न सका। मैंने विद्या उर्फ मंजू को बहुत समझाने की कोशिश की, पर वह अपनी जिद्द पर अड़ी रही। मैंने कहा, ‘एक माँ के दर्द को
समझने की कोशिश करो। उससे मिलकर उसके अंतः में छाँककर तो देखो।’ विद्या चुप रही। मैंने
पुनः अनुरोध किया, ‘उसके लिये नहीं तो कम से कम मेरे खातिर एक बार उससे मिल लो।
मैंने तुम्हारे पिता को वचन दिया है। मेरे
वचन का तो सम्मान करो।’ यह अनुरोध करते समय मेरी आँखें भी चुप न रह सकीं, ‘मेरी प्यारी बच्ची,’
कह वे रो पड़ीं।
विद्या बिटिया लम्बे समय तक खामोश रहीं। अंत
में वह बोली, ‘ठीक है। पर सिर्फ एक बार मिलूँगी।’
दिल्ली से वापस आकर मैंने श्री शिंदे को फोन
किया। कब, कहाँ मिलना है यह निश्चित करने तक स्थिति डाँवाडोल-सी प्रतीत होती रही। विद्या
भी घबरा रही थी और अंतिम घड़ी तक वह हिचकिचाती रही। मैं उसका हाथ थामे श्री व श्रीमती
शिंदे के कमरे की तरफ बढ़ा तो विद्या ने मेरे हाथ को कसकर पकड़ लिया था। वह चाहती थी
कि मैं पूरे समय उसके साथ रहूँ।
दरवाजे को थपथपाकर जब हम श्री शिंदे के कमरे
में दाखिल हुए तो पहली ही झलक ने मुझे स्तंभित कर दिया। श्रीमती शिंदे वही महिला थीं
जो मुझसे स्टेशन पर टकराई थीं जब मैं छोटे बच्चे की बैसाखी पकड़े उसे रेलडिब्बे में
चढ़ा रहा था --- याने श्रीमती शिंदे अंधी थी और जब वे विद्या के चेहरे को थथोलकर समझने
की कोशिश कर रही थीं, तब विद्या बोल पड़ी, ‘क्या आपको भी दिखाई
नहीं देता।’
‘हाँ, मुझे भी दिखाई नहीं
देता,’ यह कहते समय श्रीमती शिंदे ने भी ‘भी’ शब्द कुछ इस तरह कहा
कि विद्या अचानक रो पड़ी, ‘काश! मुझे मालूम होता। पर मुझे तो किसी ने भी यह नहीं बताया
था।’
तभी मेरी नजर श्री शिंदे की तरफ गयी। वे चुपचाप
खड़े थे। मैं विद्या को उनके पास ले गया। वे भी स्पर्ष से अपनी बेटी को समझने की कोशिश
कर रहे थे। मेरे मुख से चीख-सी निकल पड़ी, ‘क्या आप भी देख नहीं सकते?’
‘हाँ,‘ श्री शिंदे ने कहा,
‘यही बात थी जो हमें
अपनी बेटी से दूर कर गई। मैं विदेश में जाकर अपनी खोई रोशनी पाने की अंतिम कोशिश में
था। मंजू की माँ का भी इलाज पहले असंभव पाया जा चुका था और हमें मालूम हो चुका था कि
बिटिया की आँखों की रोशनी भी गुम होने लगी थी। बेटा मंजू! इतने साल तुमसे दूर रहकर
हमने पाया कि रोशनी खो चुकी आँखें आँसू बहाकर मन को शांत करने की शक्ति भी खो देती
हैं।’
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