Sunday, March 15, 2015

चाह ----- भूपेन्द्र कुमार दवे





चाह

चाहूँ इस जटिल जगत में
जो भी मिले , जैसा मिले
मुस्कराता,  हँसता मिले ।

पतझर में भी बहार-सा
हर पल खिलखिलाता मिले
काँटों से घिरे फूल-सा
खुशबू लिये, खिलता मिले

चाहूँ हर जगह, हर डगर
कुनमुनाती धूप नीचे
दूब प्यारी फैली मिले
जो भी मिले , जैसा मिले
मुस्कराता,  हँसता मिले ।

अनजान की पहचान हो
ऐसी खुशी सबको मिले
हर फूल का सम्मान हो
ऐसी महक सबको मिले

चाहूँ हमें हर बाग में
हर कली को गुदगुदाती
बस भीड़ भ्रमरों की मिले
जो भी मिले , जैसा मिले
मुस्कराता,  हँसता मिले ।

हर पंखुरी की गोद में
ओस बूँद सोती मिले
और पलकों की ओट में
मुस्कान मोती-सी मिले

चाहूँ गाँव की गली में
झोपड़ी की साये तले
समृद्ध गरीबी ही मिले
जो भी मिले , जैसा मिले
मुस्कराता,  हँसता मिले ।

मुस्कान की मीठी डली
बस हर अधर घुलती मिले
हर अमावस रात काली
दीप रोशन हर घर मिले  

चाहूँ हर छत के नीचे
जीवन के हर पलने में
सुखद स्वप्न संसार मिले
जो भी मिले , जैसा मिले
मुस्कराता,  हँसता मिले ।

माँ की गोदी में पलते
हर बच्चे को प्यार मिले
ईंधन हो हर चूल्हे में
हर तवे भी रोटी मिले

चाहूँ जीवन के घट की
हर बहती जलधारा से
मुस्कानों का मधुपान मिले
जो भी मिले , जैसा मिले
मुस्कराता,  हँसता मिले ।

हर बच्चे को बचपन से
जीने का अधिकार मिले
हर जीवन को यौवन-सा
प्यार भरा उपहार मिले

चाहूँ अंतिम क्षण में भी
न कष्ट मिले, न दर्द मिले
न मुस्कानों का अभाव मिले
जो भी मिले , जैसा मिले
मुस्कराता,  हँसता मिले ।


                         -----      भूपेन्द्र कुमार दवे

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