मैं शून्य के अंदर अनंत की छटा हूँ
मैं शून्य के अंदर अनंत की छटा हूँ
मैं धधकते सूरज की किरणों से सजा हूँ।
न जाने मैं किन किन नजरों में बसा हूँ
न जाने मैं किस किस पलकों में छिपा हूँ।
पर छिप-छिपके मैं सबसे मिलता रहा हूँ
फूलों की खुश्बू बना मैं उड़ता रहा हूँ।
भ्रमर की तरह मैं गुनगुनाता रहा हूँ
बगिया की झुरमुट में भटकता रहा हूँ।
मैं शून्य के अंदर अनंत की छटा हूँ
मैं धधकते सूरज की किरणों से सजा हूँ।
देखा न तुमने और न देखा किसी ने
ना समझा नजर का इशारा किसी ने।
अश्क-सा बन मैं बस लरजता रहा हूँ
नमपलकों में प्रतिपल थिरकता रहा हूँ।
मैं शून्य के अंदर अनंत की छटा हूँ
मैं धधकते सूरज की किरणों से सजा हूँ।
मैं अश्क हूँ पर अश्क-सा बहता नहीं हूँ
औ माटी में मिलने भी मचलता नहीं हूँ।
किस्सा-कहानी कोई लिख ना सका हूँ
दर्द दुनिया का बयां भी कर न सका हूँ।
मैं शून्य के अंदर अनंत की छटा हूँ
मैं धधकते सूरज की किरणों से सजा हूँ।
मैं गूँगा नहीं फिर भी कहता नहीं हूँ
खामोशी के चिन्हों से डरता नहीं हूँ।
मधुर गीतों के लब पर गुमसुम खड़ा हूँ
शब्दों का संसार ले ठिठका पड़ा हूँ।
मैं शून्य के अंदर अनंत की छटा हूँ
मैं धधकते सूरज की किरणों से सजा हूँ।
इस पार नहीं है] कुछ भी उस पार नहीं है
मझधार में बहता कुछ भी दिखता नहीं है।
न जाने कितनी नैय्या खेने चला हूँ
मैं किस किस की पतवार हाथों धरा हूँ।
मैं शून्य के अंदर अनंत की छटा हूँ
मैं धधकते सूरज की किरणों से सजा हूँ।
इक लौ-सी उठी जिसके बुझने के पहले
जिसका धुँआ उजाले को बस घिरता चले।
मैं नहीं हूँ वह दीप जो बुझता रहा है
आँधी या तूफाँ में मचलता रहा है।
मैं शून्य के अंदर अनंत की छटा हूँ
मैं धधकते सूरज की किरणों से सजा हूँ।
बने हैं पदचिन्ह पर मैं चलता नहीं हूँ
विश्राम लेने मैं कहीं रुकता नहीं हूँ।
समय ही मेरा एक हमसफर बना है
अनंत तक का वह मेरा सखा बना है।
मैं शून्य के अंदर अनंत की छटा हूँ
मैं धधकते सूरज की किरणों से सजा हूँ।
जन्म है आकार तो मृत्यु निराकार है
पर इनका मिलन ही सृष्टि का आधार है।
मैं मचलती साँस का महकता नशा हूँ
न जाने कब किससे क्यूँकर जुड़ा हूँ।
मैं शून्य के अंदर अनंत की छटा हूँ
मैं धधकते सूरज की किरणों से सजा हूँ।
---- भूपेन्द्र कुमार दवे
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