Monday, September 15, 2014

आवो, लौट चलें जीवन में ---- ---- भूपेंद्र कुमार दवे





आवो, लौट चलें जीवन में

आवो, लौट चलें जीवन में
नाहक भटके गैरों के पथ पर
द्वेष, घृणा के खंजर लेकर
स्वयं बिछाकर अंगारे पथ पर
चले व्यर्थ ही नफरत भरकर
बहुत रहे यूँ बीहड़ वन में
आवो, लौट चलें जीवन में

हम तजकर पनघट प्यारे पथ के
क्यूँ प्यासे हैं कपट कलश के
खुद जलते हैं औरों पर जल के
चले व्यर्थ तेजाब छिड़कते
बहुत रहे मटमैले मन में
आवो, लौट चलें जीवन में


क्रोध अग्नि-सा जब जब बन जाता
घाव बड़े गहरे कर जाता
तब प्रतिशोध धूर्त बन छिप जाता
चिन्गारी-सा भभक उठाता
गुण यही है हर कटुवचन में
आवो, लौट चलें जीवन में

अहं हमें ही धिक्कार रहा है
निंदा करना सिखा रहा है
विष पीकर विष पिला रहा है
सबको बैरी बना रहा है
क्या जीना मरघट से तन में
आवो, लौट चलें जीवन में

जोड़ रहा है धन, जोड़-तोड़कर
मुख पर कालिख पोत-पोतकर
दौलत की बस लालच में पड़कर
जब बिक जावें साँसें तत्पर
क्या रक्खा तब काले धन में
आवो, लौट चलें जीवन में

धर्म, कर्म का कुछ ज्ञान नहीं है
जो कुछ करते सत्कर्म नहीं है
फिर भी कहते हैं न्याय नहीं है
जग में भी भगवान नहीं है
व्यर्थ पड़े हैं इस उलझन में
आवो, लौट चलें जीवन में


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